जन्म कुंडली का फलकथन कैसे करें ?
किसी भी इंसान के जीवन में क्या होगा, कब होगा या उसका जीवन कैसा बीतेगा इसका कथन व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है। जन्मकुंडली के फल-कथन के माध्यम से ज्योतिष मनुष्य के कर्म, गति और भाग्य के बारे में कई बातें बता सकते हैं। इसमें भाव तथा ग्रहों के विश्लेषण का बहुत महत्व होता है।जन्म कुंडली का विश्लेषण करने से पूर्व किसी भी कुशल ज्योतिषी को पहले कुंडली की कुछ बातो का अध्ययन करना चाहिए. जैसे ग्रह का पूरा अध्ययन, भावों का अध्ययन, दशा/अन्तर्दशा, गोचर आदि बातों को देखकर ही फलकथन कहना चाहिए. आज इस लेख के माध्यम से हम कुंडली का अध्ययन कैसे किया जाए सीखने का प्रयास करेगें.
जन्म कुंडली में सबसे पहले यह देखें कि ग्रह किस भाव में स्थित है और किन भावों का स्वामी है.
ग्रह के कारकत्व क्या-क्या होते हैं.
ग्रहों का नैसर्गिक रुप से शुभ व अशुभ होना देखेगें.
ग्रह का बलाबल देखेगें.
ग्रह की महादशा व अन्तर्दशा देखेगें कि कब आ रही है.
जन्म कालीन ग्रह पर गोचर के ग्रहों का प्रभाव.
ग्रह पर अन्य किन ग्रहों की दृष्टियाँ प्रभाव डाल रही हैं.
ग्रह जिस राशि में स्थित है उस राशि स्वामी की जन्म कुण्डली में स्थिति देखेगें और उसका बल भी देखेगें.
ग्रह की जन्म कुंडली में स्थिति के बाद जन्म कुंडली के साथ अन्य कुछ और कुंडलियों का अवलोकन किया जाएगा, जो निम्न हैं.
जन्म कुंडली के साथ चंद्र कुंडली का अध्ययन किया जाना चाहिए.
भाव चलित कुंडली को देखें कि वहाँ ग्रहों की क्या स्थिति बन रही है.
जन्म कुंडली में स्थित ग्रहों के बलों का आंकलन व योगों को नवांश कुंडली में देखा जाना चाहिए.
जिस भाव से संबंधित फल चाहिए होते हैं उससे संबंधित वर्ग कुंडलियों का अध्ययन किया जाना चाहिए. जैसे व्यवसाय के लिए दशमांश कुंडली और संतान प्राप्ति के लिए सप्ताँश कुंडली. ऎसे ही अन्य कुंडलियों का अध्ययन किया जाना चाहिए.
वर्ष कुंडली का अध्ययन करना चाहिए जिस वर्ष में घटना की संभावना बनती हो.
ग्रहों का गोचर जन्म से व चंद्र लग्न से करना चाहिए.
अंत में कुछ बातें जो कि महत्वपूर्ण हैं उन्हें एक कुशल ज्योतिषी अथवा कुंडली का विश्लेषण करने वाले को अवश्य ही अपने मन-मस्तिष्क में बिठाकर चलना चाहिए.
जन्म कुंडली में स्थित सभी ग्रहो की अंशात्मक युति देखनी चाहिए और भावों की अंशात्मक स्थित भी देखनी चाहिए कि क्या है. जैसे कि ग्रह का बल, दृष्टि बल, नक्षत्रों की स्थिति और वर्ष कुंडली में ताजिक दृष्टि आदि देखनी चाहिए.
जिस समय कुंडली विश्लेषण के लिए आती है उस समय की महादशा/अन्तर्दशा/प्रत्यन्तर दशा को अच्छी तरह से जांचा जाना चाहिए.
जिस समय कुंडली का अवलोकन किया जाए उस समय के गोचर के ग्रहों की स्थिति का आंकलन किया जाना चाहिए.
आइए अब भावों के विश्लेषण में महत्वपूर्ण तथ्यों की बात करें. जब भी किसी कुंडली को देखना हो तब उपरोक्त बातों के साथ भावों का भी अपना बहुत महत्व होता है. आइए उन्हें जाने कि वह कौन सी बाते हैं जो भावों के सन्दर्भ में उपयोगी मानी जाती है.
जिस भाव के फल चाहिए उसे देखें कि वह क्या दिखाता है.
उस भाव में कौन से ग्रह स्थित हैं.
भाव और उसमें बैठे ग्रह पर पड़ने वाली दृष्टियाँ देखें कि कौन सी है.
भाव के स्वामी की स्थिति लग्न से कौन से भाव में है अर्थात शुभ भाव में है या अशुभ भाव में है, इसे देखें.
जिस भाव की विवेचना करनी है उसका स्वामी कहाँ है, कौन सी राशि व भाव में गया है, यह देखें.
भाव स्वामी पर पड़ने वाली दृष्टियाँ देखें कि कौन सी शुभ तो कौन सी अशुभ है.
भाव स्वामी की युति अन्य किन ग्रहों से है, यह देखें और जिनसे युति है वह शुभ हैं या अशुभ हैं, इस पर भी ध्यान दें.
भाव तथा भाव स्वामी के कारकत्वों का निरीक्षण करें.
भाव का स्वामी किस राशि में है, उच्च में है, नीच में है या मित्र भाव में स्थित है, यह देखें.
भाव का स्वामी अस्त या हुआ तो नहीं है या अन्य किन्हीं कारणों से निर्बली अवस्था में तो स्थित नहीं है, इन सब बातों को देखें.
भाव, भावेश तथा भाव के कारक तीनों का अध्ययन भली – भाँति करना चाहिए. इससे संबंधित भाव के प्रभाव को समझने में सुविधा होती है.
उपरोक्त बातों के साथ हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि किसी भी कुंडली का सामान्य रुप से अध्ययन करने के लिए लग्न, लग्नेश, राशिश, इन पर पड़ने वाली दृष्टियाँ और अन्य ग्रहो के साथ होने वाली युतियों पर ध्यान देना चाहिए. इसके बाद नवम भाव व नवमेश को देखना चाहिए कि उसकी कुंडली में क्या स्थिति है क्योकि यही से व्यक्ति के भाग्य का निर्धारण होता है. लग्न के साथ चंद्रमा से भी नवम भाव व नवमेश का अध्ययन किया जाना चाहिए. इससे कुंडली के बल का पता चलता है कि कितनी बली है. जन्म कुंडली में बनने वाले योगो का बल नवाँश कुंडली में भी देखा जाना चाहिए. नवाँश कुंडली के लग्न तथा लग्नेश का बल भी आंकना जरुरी है.ओर जो चल रहा है वह केवल दशा और अन्तर्दशाओं का परिणाम है। इसके ज्ञान के लिए आपको लग्न के ज्ञान की आवश्यकता है, इसके अतिरिक्त आप जीवन मे चल रही घटना के लिए दशानाथ और अन्तर्दशानाथ को उत्तरदायी ठहरा सकते हैं। पाराशर ऋषि ने कभी भी प्रत्यंतर को लेकर विशिष्ट व्याख्याएं नहीं दी हैं। वे प्रत्यन्तरनाथ को घटना के समय-काल का निर्धारण करने वाला मानते हैं।
मैंने बहुत सारे ज्योतिषियों को घटना के कारण जन्मपत्रिका मेें ढूंढते हुए देखा है जबकि आने वाली घटना की सूचना महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ ही दे देते हैं, षड्बल एवं षोड्शवर्ग घटना की तीव्रता का ज्ञान करने के उपकरण मात्र हैं, घटना अवश्य घटेगी। यह आप पर निर्भर है कि आप घटना के घटित होने से पूर्व पापकर्मो के क्षय के लिए उपाय कर पाते हैं या नहीं। दूसरे शब्दों में घटना की तीव्रता को आप नियंत्रित कर सकते हैं। आपको सबसे पहले लग्न का ज्ञान होना चाहिए और उसके बाद तत्कालीन अन्तर्दशा का।
अन्तर्दशा का महत्व : अन्तर्दशानाथ, महादशानाथ से बलवान होते हैं और व्यक्ति के वर्तमान समय का आकलन अन्तर्दशानाथ के आधार पर ही किया जा सकता है। मान लीजिए, षष्ठेश की दशा चल रही है तो उस समय जीवन की मुख्य धुरी रोग, रिपु, ऋण हो जाएंगे भले ही जन्मपत्रिका में कितने ही शुभ या राजयोग हों। वर्तमान परिस्थित के सही आकलन के लिए एक अन्तर्दशा पीछे जाना बहुत जरूरी है। जिस प्रकार हम बीमार होते ही तुरंत डॉक्टर के पास नहीं जाते हैं, उसी प्रकार परेशानी आते ही कोई ज्योतिषी के पास नहीं जाता है। कई बार ऎसा होता है कि वर्तमान अन्तर्दशा तो शुभ है परंतु उससे ठीक पहले की अन्तर्दशा कठिन थी। कठिन परिस्थितियों को झेलते हुए जब तक व्यक्ति ज्योतिषी के पास जाता है, अन्तर्दशा बदल चुकी होती है परंतु अच्छे परिणाम ने अभी आहट नहीं दी है। मान लीजिए वर्तमान में कठिन अन्तर्दशा चल रही है और परिणामों की तीव्रता बहुत अधिक है। उस अन्तर्दशा से ठीक पहले चतुर्थेश या भाग्येश की दशा थी। इन दशाओं में उसने जमीन या मकान खरीदा होगा। यदि उसके चतुर्थेश या चतुर्थ भाव पीडत हैं तो परिणामों की तीव्रता का कारण वास्तु दोष भी एक कारण हो सकता है। अत: अन्तर्दशा का पूरा अध्ययन परिणामों के पूर्ण विश्लेषण में बहुत अधिक सहायक हो सकता है।कारकत्व : अन्तर्दशानाथ से मुख्य विषय का ज्ञान करने के पश्चात् हमें जो ग्रह अन्तर्दशानाथ हैं उनका कारकत्व और वह जिस भाव में स्थित हैं, उस भाव के कारकत्व का विश्लेषण करना है। सदा ग्रह और भाव के कारकत्वों को समझे वर्गकुण्डलियों में तभी जाएं जब मूल जन्मपत्रिका की आत्मा को आप पहले समझ लीजिए। ग्रह एवं भावों के कारकत्वों के विस्तृत अध्ययन के लिए कालिदास रचित उत्तर कालामृत सर्वश्रेष्ठ है। अष्टमेश की दशा में हम मृत्यु, मृत्युतुल्य कष्ट, कठिनाइयों को ही ढूंढ़ते हैं। अनुसंधान का भाव भी अष्टम भाव ही है। महान अनुसंधान करने वाले कई महापुरूषों ने अपना सबसे गहन अध्ययन अष्टमेश की दशा में ही किया। ऎसी कुण्डलियों में प्राय: अष्टम का संबंध लग्न से रहता है। यश और अपमान हम दशम भाव से देखते हैं परंतु इसका संबंध चतुर्थ भाव से भी है। जनता द्वारा दिया जाना वाला यश चतुर्थ भाव से देखा जाता है। नेता, अभिनेता की कुण्डली में इसे जनता द्वारा दिए जाने वाले प्यार और सम्मान के रूप में देखा जा सकता है परंतु आम व्यक्ति के लिए इसे किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा उसके लिए बनाए गए रूप में देखा जाना चाहिए। मान लीजिए किसी का कोई कोर्ट केस चल रहा है या कार्यस्थल पर कोई झग़डा है, जिसका निपटारा होना है। ऎसे में यदि चतुर्थेश की दशा है तो चतुर्थ भाव और चतुर्थेश की स्थिति के आधार पर निर्णय दिया जा सकता है। यदि चतुर्थेश बलवान है और चतुर्थ भाव पर शुभ प्रभाव है तो उस दशा में व्यक्ति के खिलाफ केस नहीं बनेगा और चीजें उसके पक्ष में होंगी। यदि ग्रहों के कारकत्व की बात करें तो केतु की दशा में अचानकता बनी रहती है। साथ ही मानसिक बेचैनी भी रहती है। भले ही केतु शुभ हों और अच्छे परिणाम भी दें परंतु अपने नैसर्गिक कारकत्व से जु़डे परिणाम भी देंगे। ग्रहों के कारकत्व का गहराई से अध्ययन भविष्यकथन में सटीक परिणाम देने में सहायक होता है।योगकारक-अयोगकारक का निर्णय : सही परिणाम तक पहुंचने के लिए आवश्यक है कि यह निर्णय लिया जाए कि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ योगकारक हैं या अयोगकारक। प्रत्यन्तर, सूक्ष्म और प्राण दशा से परिणाम लेते समय भी यह सुनिश्चित करना आवश्यक होता है। योगकारक-अयोगकारक का निर्णय करने का सूत्र बहुत ही विस्तृत रूप से लघुपाराशरी में समझाया गया है। लघु पाराशरी में इस विषय में कुछ महत्वपूर्ण सूत्र दिए गए हैं :
- त्रिकोणेश सदा शुभ होगा भले ही वह नैसर्गिक रूप से अशुभ ग्रह हो।
- केन्द्र में प़डने वाली राशि सम होती है भले ही वह नैसर्गिक रूप से शुभ हो या अशुभ।
- द्वितीयेश व द्वादशेश की दूसरी राशि जिस स्थान में प़डती है, उसी स्थान के अनुसार अपना शुभ व अशुभ फल देंगे।
इन नियमों को उदाहरण से समझते हैं। कर्क लग्न के लिए पंचमेश हैं मंगल, अत: मंगल अति शुभ होंगेे, भले ही वे नैसर्गिक रूप से अशुभ ग्रह हैं। मंगल की दूसरी राशि मेष दशम भाव में आ रही है। नियमानुसार केन्द्र में प़डने वाली राशि सम हो जाएगी अत: दोनों राशियों के आधार पर मंगल की स्थिति इस प्रकार होगी :
अतिशुभ + सम = अति शुभ (त्रिकोणेश (केन्द्रेश होने अथवा होने के कारण) के कारण) योगकारक कर्क लग्न में ही दूसरे त्रिकोणेश बृहस्पति की दूसरी राशि छठे भाव में है अत: त्रिकोणेश होने से शुभ परंतु छठे भाव के स्वामी होने के कारण अशुभ। यहां एक तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक है बृहस्पति नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह हैं अत: स्थिति इस प्रकार होगी :
अतिशुभ + अशुभ (नैसर्गिक शुभ) = सामान्य शुभ (त्रिकोणेश होने के कारण) कन्या लग्न में शनि पंचमेश होने के कारण शुभ हैं परंतु षष्ठेश होने के कारण अशुभ और साथ ही नैसर्गिक अशुभ होने के कारण स्थिति इस प्रकार होगी :
अतिशुभ + अशुभ + नैसर्गिक अशुभ = अशुभ इस प्रकार हर लग्न के लिए योगकारक-अयोगकारक का निर्णय करने से फलकथन में सहायता मिलती है। इन नियमों में कुछ अपवाद भी हैं जिन्हें ध्यान में रखना अति आवश्यक है। “भावार्थ रत्नाकर” नामक पुस्तक इस विषयां में बहुत अच्छी जानकारी देती है।
ऎसे बहुत से महत्वपूर्ण नियम भावार्थ रत्नाकर में उद्धत हैं।
महादशानाथ और अंतर्दशा में संबंध : इस अत्यंत महत्वपूर्ण विवेचन के लिए एक बार पुन: लघुपाराशरी की शरण में जाना होगा। लघुपाराशरी के अनुसार किसी भी दशा में पूर्णफल तभी मिलेंगे जब महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ समानधर्मी और संबंधी हों।
फल से तात्पर्य शुभ और अशुभ दोनों हैं। महत्वपूर्ण नियम यह है कि किसी भी ग्रह की महादशा में पहली अन्तर्दशा उसी ग्रह की होगी परंतु पूर्णफल देने में सक्षम नहीं होगी फिर भले ही वह योगकारक हो, अयोगकारक या मारक। फलकथन में इन बारीकियों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। मान लीजिए, किसी कुण्डली में शुक्र योगकारक हैं और उनकी महादशा शुरू होने वाली है। शुक्र महादशा में पहली अन्तर्दशा शुक्र की ही होगी और लगभग तीन वर्ष की होगी। ऎसी स्थिति में इस अवधि में बहुत अच्छे परिणाम कहना, कथन को गलत सिद्ध कर सकता है।
समानधर्मी से तात्पर्य है स्वाभाविक फल समान होना अर्थात् महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ दोनों ही योगकारक हों, अयोगकारक हों या मारक हों। यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ सहधर्मी होने के साथ-साथ संबंधी भी हुए तो दशा का पूरा फल प्राप्त होगा। संबंधी से तात्पर्य है किसी भी प्रकार का चतुर्विध संबंध। यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ सहधर्मी और संबंधी दोनों हुए तो श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त होंगे। परिणाम अच्छे या बुरे दोनों हो सकते हैं। वृहत पाराशर होरा शास्त्र में सभी ग्रहों की महादशा में सभी अन्तर्दशाओं का विस्तृत विवरण दिया गया है। इस विवरण से न सिर्फ कुछ विशेष परिणाम का ज्ञान होता है बल्कि बहुत से अचूक उपायों का भी ज्ञान होता है। स्पष्ट है कि शुभ महादशा में योगकारक अन्तर्दशाएं अति शुभ परिणाम देंगी और अयोगकारक एवं मारक दशाएं अपने पूरे परिणाम नहीं दे पाएंगी इसलिए शुभ महादशा का समय अच्छा बीतेगा।
अन्तर्दशानाथ की स्थिति का विवेचन : दशा में आने वाले परिणाम दशानाथ की स्थिति पर आधारित होंगे। दशानाथ उच्चा, नीच, मित्र, शत्रु आदि जिस भी राशि में हैं परिणाम की विवेचना उसी आधार पर की जाती है। दशानाथ का षड्बल बहुत महत्वपूर्ण संकेत देता है। षड्बल में विभिन्न मापदण्डों पर ग्रह का बल तौला जाता है। यदि दशानाथ का षड्बल औसत से अच्छा है अर्थात् 1 रूपाबल या उससे अधिक तो दशानाथ फल देने में सक्षम हैं। पुन: स्पष्ट करना आवश्यक है कि फल शुभ या अशुभ दोनों हो सकते हैं। यदि दशानाथ का ष्ड्बल कम है तो वह पूर्ण परिणाम देने में सक्षम नहीं है। मान लीजिए, दशानाथ भाग्येश हैं परंतु षड्बल कम है तो शुभ परिणाम कहीं ना कहीं कम हो जाएंगे। षड्बल से विवेचना करते समय ग्रह का नैसर्गिक कारकत्व भी अवश्य देखना चाहिए। जिसकी कुण्डली में शुक्र का षड्बल अच्छा होता है, उसे सौन्दर्य की परख बहुत अच्छी होती है। अगर उस कुण्डली के लिए शुक्र षष्ठेश हैं तो शुक्र षष्ठेश के ही परिणाम देंगे परंतु उनका यह नैसर्गिक गुण भी अवश्य विद्यमान होगा। ग्रहों के नैसर्गिक गुणों एवं कारकत्वों को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। लघुपाराशरी के एक अन्य नियम की चर्चा यहां करना आवश्यक है। लघुपाराशरी के अनुसार एक ही ग्रह कारक और मारक दोनों हो सकता है। दूसरे भाव का स्वामी या दूसरे भाव में बैठा ग्रह धनदायक है तो मारक भी है। जब दशा में योगकारक ग्रह का साथ मिलेगा तो वह ग्रह धन प्रदान करेगा और जब मारक ग्रह का साथ मिलेगा तो वह मारक फल प्रदान करेगा। परन्तु काल परिस्थिति वाली वात भी यहां घ्यान में रखे
षोड्श वर्ग : वैदिक ज्योतिष का सबसे महत्वपूर्ण अंग है षोड्श वर्ग। दशानाथ की पूर्ण शक्ति समझने के लिए नवांश कुण्डली में उसकी स्थिति जरूर देखी जानी चाहिए। यदि ग्रह जन्मकुण्डली में मजबूत है परंतु नवांश कुण्डली में कमजोर है तो उसे कमजोर माना जाना चाहिए परंतु जन्मकुण्डली में नीच का ग्रह यदि नवांश कुण्डली में उच्चा का है तो वह फल देने में सक्षम है। नवांश कुण्डली के पश्चात् उस षोड्श वर्ग कुण्डली का अध्ययन करना चाहिए जिससे संबंधित भाव की दशा चल रही है। षोड्श वर्ग के अध्ययन को लेकर अभी भी बहुत असमंजस है। जो जन्मकुण्डली में नहीं है उसे षोड्श वर्ग में ना ढूंढे। चाहे पाप ग्रह उच्चा का हो और चाहे शुभ ग्रह नीच का, कभी भी अपने मूल संस्कार नहीं भूलते। फलकथन के प्रतिशत में अंतर आ सकता है परंतु पापग्रह पाप फल देने से नहीं चूकते और शुभ ग्रह शुभ फल देने से नहीं चूकते। मान लीजिए, जन्मपत्रिका का पंचम भाव पीडत है और संतान प्राप्त में दिक्कतें आ रही हैं तो जन्मपत्रिका के पंचमेश की स्थिति सप्तमांश कुण्डली में देखें।
यदि सप्तमांश कुण्डली में वह ग्रह सुदृढ़ स्थिति प्राप्त कर रहा है या शुभ ग्रहों से दृष्ट है तो इसका तात्पर्य है कि संतान प्राप्त की संभावनाएं हैं। संतान कब होगी इसके लिए पुन: जन्मपत्रिका का सहारा ही लेना होगा। इस तरह फलकथन की तकनीक को सरल रखने का प्रयास करना चाहिए। जब कोई ग्रह कई षोड्श वर्गो में उच्च या स्वराशि का हो तो वह ग्रह अति विशेष परिणाम देने में सक्षम हो जाता है। अत: जिस ग्रह की दशा चल रही है उसे षोड्श वर्ग सारिणी में देखें। यदि ग्रह 6 से अधिक वर्गो में उच्च या स्वराशि होता है तो फलकथन में इस तथ्य को भी शामिल करना चाहिए। गोचर : दशा जिस घटना का संकेत देती है, गोचर से उसकी पुष्टि की जा सकती है। साथ ही घटना की तीव्रता का आकलन भी गोचर के माध्यम से किया जा सकता है। उदाहरण के लिए जब सप्तमेश की दशा चल रही हो उसी समय गोचरवश सप्तम भाव पर बृहस्पति और शनि का प्रभाव विवाह की संभावनाओं को प्रबल कर देता है। जिस समय मारकेश की दशा चल रही है उस समय लग्न पर बृहस्पति की अमृत दृष्टि जीवन रक्षा का संकेत देती है। यह अत्यंत आवश्यक है कि सिर्फ गोेचर के आधार पर परिणाम लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इससे गलती की संभावना बढ़ सकती है।विशेष नियमों का ज्ञान : कुछ विशेष नियमों का ज्ञान फल की सटीकता को कई गुणा बढ़ा सकता है। कालिदास जी की उत्तर कालामृत में ऎसे ही कुछ विशेष नियमों का उल्लेख है। उदाहरण के लिए शनि में शुक्र और शुक्र में शनि की दशा का विशेष नियम दिया है ।
शुक्र शनि दशा के विशेष नियम
शुक्र शनि दशा विशेष नियमपराशर ज्योतिष का एक ये विशेष नियम है की शुक्र अपना फल अपनी महादशा में शनि की अन्तर्दशा में देता है और शनिअपना फल अपनी महादशा में जब शुक्र की अन्तर्दशा आती है तब देता है अब इस नियम की एक ख़ास बात ये भी है की जब कुंडली में ये दोनों अपनी उंच राशि स्वराशि में होकर शुभ स्थानो में स्थित हो तो इनकी दशा अन्तर्दशा जातक को बर्बाद करने का कार्य करती है लेकिन जब इन दोनों में से कोई एक यदि नीच राशि शत्रु राशि में सिथत होकर अशुभ स्थानों में होतो इनकी दशा योगकारक होकर जातक को विशेष शुभ फल देती है ऐसे ही यदि ये दोनों अपनी नीच राशि शत्रु राशि में स्थित होकर त्रिक भाव में हो तो इनकी दशा अन्तर्दशा में जातक को विशेष शुभ फल मिलते है यदि इन दोनों में से कोई एक त्रिक भाव का स्वामी हो और दूसरा शुभ भाव का स्वामी हो तो भी इनकी दशा विशेष रूप से शुभ फल जातक को देती है यदि ये दोनों अशुभ भावों के स्वामी हो तो भी इनकी दशा विशेष रूप से योगकारक होकर जातक को अच्छे फल देती है जिन जातकों ने इनकी दशा अन्तर्दशा भुगती है वो ये नियम अपने उपर लगाकर खुद देख सकते है की ये नियम कितना स्टिक है।।
पंडित पंकज मिश्र ज्योतिष।।